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Wasiyat Kahani in Hindi
Wasiyat Kahani is a story by which the author has shown the truth of today’s social situation. This story has been composed by Bhagwati Charan Verma, who is a well-known personality in the Hindi literary world. Bhagwati Charan Verma was born on 30 August 1903 in Shafipur village in Unnao district of Uttar Pradesh. He was honored with the Padma Bhushan award by the Government of India for his invaluable contribution to the literary world. Bhagwati Charan Verma died on 5 October 1981 at the age of 78.

Wasiyat Kahani in Hindi
जिस समय मैंने कमरे में प्रवेश किया, आचार्य चूड़ामणि मिश्र आंखें बंद किए हुए लेटे थे और उनके मुख पर एक तरह की ऐंठन थी, जो मेरे लिए नितांत परिचित-सी थी, क्योंकि क्रोध और पीड़ा के मिश्रण से वैसी ऐंठन उनके मुख पर अक्सर आ जाया करती थी। वह कमरा ऊपरी मंजिल पर था और वह अपने कमरे में अकेले थे। उनका नौकर बुधई मुझे उस कमरे में छोड़कर बाहर चला गया।
आचार्य चूड़ामणि की गणना जीवन में सफल, सपन्न और सुखी व्यक्तियों में की जानी चाहिए, ऐसी मेरी धारणा थी। दो पुत्र, लालमणि और नीलमणि। लालमणि देवरिया के स्टेट बैंक की शाखा का मैनेजर था और नीलमणि लखनऊ के सचिवालय में डिप्टी सेक्रेटरी था।
तीन लड़कियां थीं, सरस्वती, सावित्री और सौदामिनी। सरस्वती के पति श्री ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक इलाहाबाद में पी.डब्ल्यू.डी. के सुपरिटेंडिंग इंजीनियर थे, सावित्री के पति श्री जयनारायण तिवारी की सुल्तानपुर में आटे की और तेल की मिलें थीं तथा सौदामिनी के पति संजीवन पांडे सेना में कर्नल थे और मेरठ छावनी में नियुक्त थे।
आचार्य चूड़ामणि का और मेरा साथ करीब चालीस वर्ष पुराना था। एक ही दिन हम दोनों की हिंदू विश्वविद्यालय के दर्शन-विभाग में नियुक्ति हुई थी। आचार्य चूड़ामणि रीडर बने थे और मैं लेक्चरर बना था।
उनके अथक परिश्रम, अटूट निष्ठा तथा अडिग संयम का ही परिणाम था कि वे विश्व में भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ माने जाते थे। प्रकांड पांडित्य के ग्रंथों से लेकर बी.ए की पाठ्य पुस्तकों तक अनेक ग्रंथों की रचना उन्होंने की थी। न जाने कितनी कमेटियों के वह सदस्य थे। हरेक विश्वविद्यालय उन्हें अपने यहां परीक्षक बनाकर अपने को धन्य समझता था। साथ ही बड़े कट्टर किस्म के ब्राह्मण थे वे। और तो और, मेरे घर की बनी हुई चाय तक उन्होंने कभी नहीं पी। महीनों उन्हें वाराणसी से बाहर रहना होता था और तब वे सत्तू, दूध, फल तथा अपने घर में बनी हुई मटरियों या लड्डुओं से हफ्तों काम चला लेते थे।
वाराणसी के लंका मोहल्ले में उन्होंने दुमंजिला मकान खरीद लिया था, उसी में वह रहते थे। उनकी पत्नी तथा उनके पुत्रों ने उनसे कितना आग्रह किया कि वे कहीं खुली जगह में कोई कोठी बनवा लें, लेकिन उन्होंने कतई इनकार कर दिया। गर्मी में दो बार और जाड़ों मे एक बार नित्य गंगा-स्नान करके पूजा करना नियत-सा था।
जनवरी का प्रथम सप्ताह था। उस दिन जब वह गंगा स्नान करके लौटे, उन्हें कुछ ज्वर-सा मालूम हुआ। उनकी पत्नी जसोदा देवी अपनी परंपरा के अनुसार लखनऊ में अपने छोटे पुत्र के यहां थीं, उनके नौकर बुधई के ऊपर उनकी देखभाल करने का पूरा भार था। दोपहर के समय जब उन्हें पसलियों में दर्द भी मालूम हुआ, उन्होंने वैद्यराज धन्वन्तरि शास्त्री को बुलाया। वैद्यराज ने नब्ज देखकर काढ़ा पिलाया – निदान था कि सर्दी लग गई है, ठीक हो जाएगी। दूसरे दिन जब बुखार और तेज हुआ, तब उन्होंने डाक्टर को बुलाया। डाक्टर ने देखा कि उन्हें निमोनिया हो गया है। दोनों फेफड़े जकड़ गए हैं। उसने दवा दी। बीमारी के चौथे दिन आचार्य चूड़ामणि ने बुधई को भेजकर मुझे बुलाया था।
थोड़ी देर तक मैं उनकी चारपाई के सामने खड़ा रहा कि वे आंखें खोलें, फिर हार कर मुझे ही बोलना पड़ा, ‘गुरुदेव! आपका शिष्य जनार्दन जोशी आपकी सेवा में उपस्थित है।”
मेरा इतना कहना था कि आचार्य चूड़ामणि ने अपनी आंखें खोल दीं, ‘जनार्दन ! मेरा अंत समय आ गया है। तुम मेरे सबसे अधिक निकटस्थ रहे हो, तो तुम्हें बुला भेजा!’
मैंने आचार्य चूड़ामणि की बीमारी के संबंध में लालमणि से सब कुछ नीचे ही सुन लिया था, जो देवरिया से एक घंटा पहले ही आ गया था – आचार्य चूड़ामणि का तार पा कर। मेरी आंखों में भी आंसू आ गए। मैंने कहा, ‘गुरुदेव! यह संसार असार है और यह शरीर नश्वर है!’
कमजोर आवाज में आचार्य ने कहा, ‘हां, जनार्दन! यही पढ़ा है लेकिन अभी मेरी अवस्था ही क्या है… कुल मिलाकर पचहत्तर वर्ष! सोच रहा था, संन्यासाश्रम का भी कुछ रस लूं, लेकिन लगता है, मृत्यु सिर पर आ गई है! मृत्यु से बड़ा भय लगता है!’ और जैसे वे बेहद थके हों, उन्होंने आंखें मूंद लीं।
मैंने उन्हें धीरज बंधाया, ‘दिल छोटा मत कीजिए, गुरुदेव! बताइए, मेरे लिए क्या आदेश है?’
आचार्य चूड़ामणि ने फिर आंखें खोलीं, ‘अरे हां, मेरे तकिए के नीचे कुछ कागज रखे हैं, उसमें मेरी वसीयत है। कल इसकी रजिस्ट्री यहीं घर पर करा चुका हूं। एक प्रति न्यायालय में है। दूसरी यह है। तो इसे निकाल लो। एकमात्र तुम मेरे सबसे अधिक निकटस्थ हो और इस दुनिया में एकमात्र तुम पर मेरा विश्वास रहा है। मैंने उन सबों को कल ही तार करवा दिया है जिन्हें मेरे क्रिया-कर्म में सम्मिलित होना है और मेरी वसीयत के अनुसार कुछ मिलना है। इस वसीयत के कार्यान्वयन के लिए मैंने तुम्हें नियुक्त किया है। तो यह वसीयत मैं तुम्हें सौंपता हूं। मेरा प्रणांत होते ही यह वसीयत लागू हो जाएगी।’
‘गुरुदेव की असीम कृपा रही है मेरे ऊपर!’ यह कहकर मैंने आचार्य के तकिए के नीचे से कागजों का पुलिंदा निकाला। इधर मैंने उन कागजों को उलटना आरंभ किया, उधर आचार्य चूड़ामणि की आंखें उलटने लगीं। मैंने तत्काल बुधई और लालमणि को बुला कर आचार्य को भूमि पर उतारा। इधर मैंने उनके मुख में गंगाजल डाला, उधर आचार्य के प्राण महायात्रा पर निकल पड़े।
बुधई को उनके कमरे में छोड़कर मैं लालमणि के साथ नीचे वाले बड़े हाल में आया। कागज का पुलिंदा मेरे हाथ में था। लालमणि ने पूछा, ‘यह कैसे कागज हैं, जोशी जी?’
‘यह तुम्हारे पिता की वसीयत है, और तुम्हारे पिता के कथनानुसार इसी समय से लागू हो जाती है। तो इसे पढ़ना आवश्यक है।’
‘हां, बुधई ने बताया था कि सब-रजिस्ट्रार साहब को पिताजी ने बुलाया था।’ लालमणि बोला।
एक छोटी-सी भूमिका अपने संबंध में, फिर वसीयत में कार्यान्वयन के अनुच्छेद आरंभ हो गए थे। पहला अनुच्छेद इस प्रकार था – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र आदेश देता हूं कि मेरा अंत्येष्टि-संस्कार सनातन धर्म की प्रथा से हो, और अपने अंत्येष्टि-संस्कार के लिए मैंने पचास हजार की रकम अपनी आलमारी में अलग निकाल रखी है, जो क्रिया-कर्म का व्यय काटकर मेरा अंत्येष्टि-संस्कार करने वाले को मिलेगी। मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि मेरे दोनों पुत्र अधर्मी और नास्तिक हैं। वैसे मेरा अंत्येष्टि-संस्कार करने का उत्तरदायित्व मेरे ज्येष्ठ पुत्र लालमणि पर है, लेकिन मेरा आदेश है कि मेरा अंत्येष्टि-संस्कार वही कर सकता है, जो यज्ञोपवीत धारण किए हो और जिसके सिर पर शिखा हो। यदि मेरे ज्येष्ठ पुत्र में यह शर्त नहीं होती, तो नीचे लिखी नामों की तालिका के अनुसार प्राथमिकता के क्रम से यज्ञोपवीत और शिखा धारण करने वाला ही मेरा अंत्येष्टि-संस्कार कर सकेगा…’ मैं पढ़ते-पढ़ते रुक गया। लालमणि की ओर देखकर मैंने पूछा, ‘क्यों चिरंजीव लालमणि, तुम्हारी चोटी-बोटी है कि नहीं? और यज्ञोपवीत पहनते हो या नहीं?’
कुछ उलझन के भाव से उसने कहा, ‘चुटइया रख के कहीं स्टेट बैंक की मैनेजरी होती है? और जनेऊ हर दूसरे-तीसरे दिन मैला हो जाता है, तो हमने पहनना ही छोड़ दिया।’
‘तब तो पचास हजार गए हाथ से, तुम अंत्येष्टि-संस्कार के योग्य नहीं हो। तुम्हारे बाद नीलमणि का नंबर है।’
‘उसके भी न चोटी है, न जनेऊ है। यह जो तीसरे नंबर पर हमारा चचेरा भाई है जगत्पति मिश्र, राज-ज्योतिषी, यह निहायत झूठा और आवारा है! ग्राहकों को फंसाने के लिए इसकी एक बलिश्त की चोटी लहराती है और झूठी कसमें खाने के लिए मोटा-सा जनेऊ पहने है।”
जगत्पति मुझसे भी एक बार पांच रुपए ऐंठ ले गया था, तो मैंने कुछ सोचकर कहा, ‘लालमणि, हमारी सलाह मानो, तो तुम किसी नाई की दुकान पर तत्काल मशीन से अपने बाल छंटा लो, तो चौथाई या आधी इंच की चोटी निकल ही आएगी। और वहां से लौटते हुए एक जनेऊ भी लेते आना।’
मेरी बात सुनते ही लालमणि तीर की तरह बाहर निकला। लालमणि के जाने के बाद मैंने वसीयत का दूसरा अनुच्छेद पढ़ा – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र चाहता हूं कि मेरी मृत्यु की सूचना तार या टेलीफोन द्वारा मेरी पत्नी जसोदा देवी, मेरे पुत्र लालमणि तथा नीलमणि, मेरी पुत्रियां सरस्वती, सावित्री और सौदामिनी तथा मेरे भतीजे जगत्पति, श्रीपति और लोकपति को दे दी जाए। अन्य संगे-संबंधियों को सूचना देने की कोई आवश्यकता नहीं। इन समस्त कुटुंब वालों की प्रतीक्षा बारह घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक की जाए, इसके बाद मणिकर्णिका घाट पर मेरे शरीर का दाह-संस्कार हो। मेरे दसवें के दिन समस्त संगे-संबंधियों की उपस्थिति में मेरी वसीयत का शेषांश पढ़ा जाए।’
अब मुझे आचार्य चूड़ामणि मिश्र की वसीयत में दिलचस्पी आने लगी थी, लेकिन आचार्य की आज्ञा मुझे शिरोधार्य करनी थी, इसलिए वसीयत को तहकर मैंने अपनी जेब के हवाले किया। आचार्य प्रवर का भौतिक शरीर अगले चौबीस घंटों में बिगड़ने न पाए, मुझे इस बात की चिंता थी। सौभाग्य से लालमणि वाराणसी आ गया था और करीब आधे घंटे बाद वह चौथाई इंच लंबी चोटी धारण किए हुए नाई की दुकान से घर वापस आ गया। इस समय उसके कंधे पर एक मोटा-सा जनेऊ भी लहरा रहा था। मैंने वसीयत का दूसरा अनुच्छेद उसे सुनाकर आदेश दिया कि वसीयत में बताए लोगों को तार या टेलीफोन से खबर कर दे, अपने चचेरे भाइयों के परिवार को बुला ले और एक सिल्ली बर्फ भी मंगवाकर आचार्य प्रवर का शरीर उस पर रखवा दे। दूसरे दिन सुबह नौ बजे आचार्य जी की शव यात्रा मणिकर्णिका घाट के लिए रवाना होगी। मैं सुबह सात-साढ़े सात बजे पहुंच जाऊंगा।
कितनी शानदार शव-यात्रा थी आचार्य चूड़ामणि की! मैं तो दंग रह गया था। वाराणसी के सभी धर्माध्यक्ष और पंडित सम्मिलित थे उसमें। शर्मा-शर्मो कुछ नेता भी आ गए थे। जगत्पति की आपत्तियों के बावजूद आचार्य की कपाल-क्रिया उनके ज्येष्ठ पुत्र लालमणि ने की अपनी चोटी और यज्ञोपवीत के बल पर।
दसवें के दिन जब घर शुद्ध हो गया, मैं आचार्य की वसीयत लेकर उनके घर पहुंचा। उनके सब परिवार वाले तथा सगे-संबंधी आ गए थे। नीचे वाले कमरे में लोग एकत्र हुए। एक ओर स्त्रियां थीं, आचार्य की पत्नी जसोदा देवी, लालमणि की पत्नी नीरजा मिश्र, नीलमणि की पत्नी मधुरिमा मिश्र, दोनों के ही बाल बाब्ड, दोनों ही अंग्रेजी-मिश्रित हिंदी में बात करने वाली। आचार्य की पुत्रियां सरस्वती और सावित्री, भारतीयता की प्रतिमूर्ति लेकर सौदामिनी अपनी भाविजों से इक्कीस निकलती हुई। दूसरी ओर पुरुष थे, आचार्य के पुत्र लालमणि और नीलमणि, आचार्य के दामाद ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक, जयनारायण तिवारी तथा संजीवन पांडे, आचार्य के भतीजे जगत्पति मिश्र, श्रीपति मिश्र और लोकपति मिश्र! बुधई सब लोगों के पान-पानी की व्यवस्था कर रहा था।
मैं उस समय तक अत्यधिक गंभीर था! आचार्य चूड़ामणि के आदेश का पालन करते हुए मैंने उनकी वसीयत का शेषांश अपने घर पर नहीं पढ़ा था, यद्यपि उसे पढ़ने की इच्छा बहुत हुई थी।
मैंने वसीयत पढ़ना आरंभ किया। दो अनुच्छेदों में लोगों को कोई दिलचस्पी नहीं थी, वह तो सब हो चुका था। अब मैं तीसरे अनुच्छेद पर आया, जो इस प्रकार था – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र आदेश देता हूं कि मेरा दाह-संस्कार करने वाले व्यक्ति की पत्नी सूतक हट जाने के बाद छह महीने तक नित्यप्रति सुबह स्नान करके ग्यारह ब्राह्मणों की रसोई अपने हाथ से बनाकर उन्हें भोजन कराएगी।…’
उसी समय लालमणि की पत्नी नीरजा मिश्र ने तमककर कहा, ‘जाड़े में सुबह स्नान करके ग्यारह ब्राह्मणों की रसोई बनावे मेरी बला! बूढ़े की सनक पर मैं अपनी जान नहीं दे सकती!’
मैंने नीरजा मिश्र की बात अनसुनी करते हुए तीसरे अनुच्छेद का शेषांश पढा – ‘यदि वह स्त्री इससे इंकार करती है, तो क्रमानुसार यह काम मैं दूसरी वधू, और इसके बाद अपनी तीन लड़कियों के हाथ में सौंपता हूं। इसके लिए उस स्त्री के लिए पचीस हजार रुपए की रकम निश्चित करता हूं।’
एकाएक मुझे मधुरिमा मिश्र की भारी और मोटी आवाज सुनाई दी, ‘पिताजी का आदेश वेदवाक्य है मेरे लिए! जीजी नहीं करती हैं तो न करें, मैं उनकी इच्छा की पूर्ति करूंगी।’
नीरजा एकाएक तड़प उठी, ‘बड़ी इच्छा की पूर्ति करने वाली होती हो! जिंदगी में कभी रसोई बनाई है या अब बनाओगी। लखनऊ में बैरों से खाना बनवाकर खाती हो! मैं तो अक्सर अपने घर में रसोई खुद ही बना लिया करती हूं। जहां छह-सात आदमियों की रसोई बनाती हूं, वहां ग्यारह आदमियों की रसोई बना लिया करूँगी, कुल छह महीने की तो बात है!’ और नीरजा ने मुझसे पूछा, ‘यह तो नहीं लिखा है कि गरम पानी से स्नान न किया जाए?’
मुझे कहना पड़ा, ‘यह शर्त लगाना वह भूल गए।’
नीरजा ने ताली बजाते हुए कहा, ‘तो फिर मुझे यह स्वीकार है! अब आगे पढिए।’
मधुरिमा मिश्र अपनी जेठानी को कोई कड़ा उत्तर देना चाहती थी कि नीलमणि बोल उठा, ‘ठीक है, यह अधिकार भाभी जी का है। वैसे भाभी जी का मधुरिमा पर आक्षेप अनुचित है। मधुरिमा ने पचास-पचास आदमियों का भोजन अकेले अपने हाथ से बनाया है। भाभी जी को अपने शब्द वापस लेने चाहिए।’
‘मैं अपने शब्द किसी हालत में वापस नहीं ले सकती!’ नीरजा ने चीखकर कहा।
लेकिन वाह रे लालमणि! उसने उठकर कहा, ‘मैं नीरजा के शब्द वापस लेता हूं। अब आप आगे पढ़िए।’
बात और आगे न बढ़े, मैंने वसीयत पढ़ना आरंभ किया – अनुच्छेद चार इस प्रकार है – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र अपनी पत्नी जसोदा देवी से जीवन भर परेशान रहा। अत्यंत आलसी, चटोरी और लापरवाह स्त्री है यह। मैंने तो दाल-भात और सत्तू खाकर जीवन बिता दिया, लेकिन यह हरामजादी मुझसे छिपाकर प्राय: नित्य ही रबड़ी, मलाई और मिठाई खाती है।…’
तभी जसोदा देवी ने चिल्लाकर कहा, ‘हाय राम! यह सब लिखा है इस बुढ़वे ने! ऐसे खबोस आदमी के पल्ले मैं पड़ गई, इसे नरक में जगह न मिलेगी! घरवालों को सताकर जमाजथा इकट्ठी करता रहा… नाश हो इसका!’
इसी समय लालमणि और नीलमणि ने एक साथ अपनी माता को डांटा, ‘अम्मा! पिताजी को गाली मत दो! हां जोशी जी, आप आगे पढिए।’
मैंने चौथे अनुच्छेद का शेषांश पढ़ा – ‘मेरी मृत्यु के बाद इस रांड को मेरे पुत्रों पर निर्भर रहना पड़ेगा, जो अपनी जोरुओं के गुलाम हैं। ये मेरी पुत्रवधुएं इसे भूखों मार देंगी, और इसकी बिगड़ी हुई आदतों के कारण इसे भयानक कष्ट होगा। इसलिए मैं जसोदा के नाम दो लाख रुपया छोड़ता हूं, जिसके ब्याज पर यह मजे में जिंदा रह सकती है।’
मैंने चौथा अनुच्छेद समाप्त ही किया था कि स्त्रियों के कक्ष में एक हंगामा-सा खड़ा हो गया। जसोदा देवी ‘हाय लालमन के पिता!’ कहकर धड़ाम से जमीन पर लेट गईं और अन्य स्त्रियों ने उन्हें घेर लिया। दस सेकेंड बाद ही उन्होंने रोना प्रारंभ कर दिया, ‘तुम तो स्वर्ग चले गए, लालमन के पिता हमें इस नरक में छोड़ गए। हमें क्षमा करो! जो हमारे अनजाने में हमसे अपराध हो गया है! हाय लालमन के पिता! और उन्होंने अपनी छाती पीटना आरंभ कर दिया।
मैंने समस्त साहस बटोरकर कड़े स्वर में कहा, ‘यह सब कारन बाद में कीजिएगा, अभी तो वसीयत पढ़ी जा रही है!’ और जसोदा देवी की पुत्रियों ने उन्हें जबरदस्ती चुप कराया।
मैंने अब पांचवां अनुच्छेद पढ़ना आरंभ किया – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र अपनी पुत्री सरस्वती के पति ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक से अत्यधिक खिन्न हूं। एक हफ्ता पहले मैंने यह खबर पढ़ी थी कि ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक के विरुद्ध पांच लाख रुपए गबन की इन्क्वायरी की मांग उठाई गई हैं एसेंबली में। इसके अर्थ यह हैं कि यह ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक बेईमान और रिश्वतखोर है।…’
ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक की ओर सब लोगों की निगाहें उठ गईं और सहसा ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक उठ खड़े हुए, ‘यह बूढ़ा हमेशा का बदमिजाज और बदजबान रहा है, मरने के पहले पागल भी हो गया था!’ और उन्होंने अपनी पत्नी सरस्वती को आज्ञा दी, ‘चलो, इस घर में मेरा दम घुट रहा है… एकदम चलो!’
सरस्वती भी उठ खड़ी हुई, लेकिन सावित्री और सौदामिनी ने सरस्वती का हाथ पकड़ लिया, ‘पहले पूरी बात तो सुन लो।’
दूसरी ओर पुरुषों ने ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक का हाथ पकड़कर बैठाया। नीलमणि ने मुझसे कहा, ‘हां जोशी जी, पांचवां अनुच्छेद पूरा कीजिए।’
मैंने पांचवां अनुच्छेद पूरा किया – ‘और अगर ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक पर इन्क्वायरी बैठ गई, तो बहुत संभव है, इसकी नौकरी जाती रहे, इसे शायद सजा भी हो जाए। इस सब में इसके पाप की कमाई भी नष्ट हो सकती है। इसलिए मैं सरस्वती के लिए एक लाख रुपया छोड़ता हूं।’
कमरे में सन्नाटा छा गया। ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक चुप बैठे छत की ओर देख रहे थे और सरस्वती सुबक रही थी। जसोदा देवी ने सरस्वती के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ‘कोई बात नहीं, इनकी तो आदत ही ऐसी थी।
मैंने अब वसीयत का छठा अनुच्छेद पढ़ा – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र अपनी दूसरी लड़की सावित्री से हमेशा संतुष्ट रहा हूं। अत्यंत सुशील और विनम्र रही है यह। भगवान की भी इस पर कृपा है। इसके पति जयनारायण तिवारी का ऊंचा कारबार है, आटे की मिल, तेल की मिल, और अब वह शक्कर की मिल भी खोल रहा है। सावित्री और जयनारायण को मेरे शत-शत आशीर्वाद।’ और मैं चुप हो गया।
तभी मुझे जयनारायण तिवारी की आवाज सुनाई दी, ‘वसीयत के अनुसार हमें कुछ मिलेगा भी या नहीं?’
‘यह तो उन्होंने नहीं लिखा है। छठा अनुच्छेद समाप्त हो गया, केवल आशीर्वाद ही दिया है उन्होंने।’
और अब सावित्री ने रो-रोकर कहना आरंभ किया, ‘पिताजी हमेशा हम लोगों से जलते रहे, हमारी संपन्नता का बखान करते रहे। उन्हें क्या पता कि इस साल हमें दो लाख रुपए का घाटा हुआ है।’
जयनारायण तिवारी ने सावित्री को डांटा, ‘क्यों घर का कच्चा चिट्ठा खोल रही हो? घाटा हुआ है तो हमें, कोई हरामजादा इस घाटे को पूरा कर देगा क्या?’
कर्नल संजीवन पांडे ने कड़े स्वर में कहा, ‘तिवारी जी, गाली-वाली देना हो, तो अपने मजदूरों और मातहतों को देना! यहां दोगे, तो मुंह तोड़ दिया जाएगा!’
मैंने सब लोगों से हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहा, ‘पहले वसीयत समाप्त हो जाए, तब आपस में लड़िए-झगड़िए।’
काफी चांव-चांव के बाद सब लोग शांत हुए। मैंने जब सातवां अनुच्छेद पढ़ा – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र अपनी छोटी लड़की सौदामिनी का मुंह नहीं देखना चाहता। यह मेरे नाम को कलंकित कर रही है। बाल कटे हुए, अंग्रेजी में बात करती है। मुझे बताया गया है कि यह कभी-कभी सिगरेट और शराब भी पी लेती है, यद्यपि मुझे इस पर विश्वास नहीं होता…’
मुझे पढ़ते-पढ़ते रुक जाना पड़ा, सौदामिनी चीख रही थी, ‘यह सब छोटे जीजाजी की हरकत है! वह हमेशा पिताजी के कान भरते रहे, तभी पिताजी ने मुझे कभी अपने यहां नहीं बुलाया।’
उसी समय मुझे सावित्री की चीख सुनाई दी, ‘अरे उन्हें बचाओ! वह संजीवन उनकी जान ले लेगा!’
अब मैंने पुरुषों की गैलरी की ओर देखा, और मेरी आंखों को विश्वास नहीं हुआ। कर्नल संजीवन पांडे जयनारायण तिवारी का गला पकड़े थे और कह रहे थे, ‘क्यों बे, सूअर के बच्चे! हमारे यहां आकर स्कॉच व्हिस्की मांगता है और पीछे चुगली करता है!’ और जयनारायण तिवारी ‘गों-गों’ की आवाज कर रहे थे। ज्ञानेन्द्रनाथ पाठक और नीलमणि ने बड़ी मुश्किल से जयनारायण तिवारी को संजीवन पांडे के पंजे से छुड़ाया।
मैंने कहा, ‘आप लोगों को इस पवित्र अवसर पर इस तरह लड़ना-झगड़ना शोभा नहीं देता! इससे आचार्य की दिवंगत आत्मा को क्लेश होगा। पहले मैं पूरी वसीयत पढ़ लूँ, तब आप आपस में एक-दूसरे से निबटिएगा। अभी सातवां अनुच्छेद समाप्त नहीं हुआ है।’
सब लोग शांत हो गए। मैंने पढ़ना आरंभ किया – ‘लेकिन इस समय मुझे लगता है, मुझसे सौदामिनी के प्रति अन्याय हो गया है। एक पतिव्रता स्त्री को जो करना चाहिए, वही सब वह कर रही है। और मैं संजीवन पांडे को भी दोष नहीं दे सकता। फौज में बड़ा अफसर है। चीन की फौज से लड़ा, पाकिस्तान की फौज से लड़ा और सौभाग्य से जीवित बचा हुआ है। लेकिन मृत्यु की छाया उसके सिर पर मंडराती ही रहती है। और इसलिए वह खुलकर मांस-मदिरा का सेवन करता है। खुले हाथ खर्च करता है। पास में पैसा नहीं। अगर वह मर जाएगा, तो सौदामिनी और उसके बच्चों को भीख मांगने की नौबत आएगी। इसलिए मैं डेढ़ लाख रुपयों की व्यवस्था करता हूं, जिसका ब्याज आठ प्रतिशत की दर से बारह हजार रुपए प्रतिवर्ष, यानी एक हजार रुपया महीना होगा।’
एकाएक सौदामिनी किलक उठी, ‘धन्य हो पिताजी! तुम निश्चय स्वर्ग में जाओगे!’
और मैंने देखा कि संजीवन पांडे ने उठकर जयनारायण तिवारी को गले से लगाया, ‘भाई साहब, मुझे क्षमा कीजिएगा! आपकी ही वजह से उस खबीस बूढ़े से डेढ़ लाख रुपए की रकम हाथ लगी!’
मैंने संजीवन पांडे को डांटा – ‘तुमको शर्म नहीं आती, जो अपने पिता-तुल्य पूज्य आचार्य को खबीस बूढ़ा कह रहे हो! अच्छा, मैं आठवां अनुच्छेद पढ़ता हूं – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र अपने भतीजे जगत्पति मिश्र राज-ज्योतिषी के कष्टों से भली-भांति परिचित हूं। इसके पास कोई बैठक नहीं है, इसलिए ग्राहक खुद इसके यहां नहीं फंसता, इसे घूम-फिरकर ग्राहकों को फंसाना पड़ता है। बावजूद अपने झूठ और आडंबर के यह अपना पेशा नहीं चला पा रहा है। अपने संकटमोचन के मकान का ऊपरी खंड मैं जगत्पति मिश्र को देता हूं, एक हजार रुपयों की रकम के साथ, जिससे यह अपना एक साइनबोर्ड बनवा ले, एक टेलीफोन लगवा ले और अपने पेशे योग्य पीतांम्बर आदि वस्त्र खरीद ले।’
जगत्पति मिश्र ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, ‘हमारे लिए सिर्फ इतना ही?’
उत्तर नीलमणि दे दिया, ‘पहले हैसियत बना लो, फिर लखनऊ आना। वहां ज्योतिषियों की बड़ी पूछ है, हम तुम्हें काफी रकम पैदा करा देंगे।’
मुझे डांटना पड़ा, ‘यह सब बातें बाद में, अभी तो वसीयत का क्रम चल रहा है। हां तो नवां अनुच्छेद इस प्रकार है -‘मैं चूड़ामणि मिश्र अपने भतीजे श्रीपति मिश्र से अत्यंत संतुष्ट हूं। हाई स्कूल पास होने के बाद ही वह राजनीति में आ गया, और राजनीतिक नेताओं की चमचागीरी करके वह खाने-पीने भर के लिए झटक लेता है। लेकिन उसे केवल इतने से संतोष नहीं कर लेना चाहिए, उसे स्वयं एम.एल.ए. या मिनिस्टर बनना चाहिए। मैं जानता हूं कि चुनाव लड़ने के लिए पूंजी की आवश्यकता है, क्योंकि एक चुनाव में पचास-साठ हजार रुपयों का खर्च है। मैं श्रीपति मिश्र के लिए पचास हजार रुपयों की व्यवस्था करता हूं, ताकि वह अगला चुनाव लड़ सके। अपनी मक्कारी, छल-कपट और गुंडागर्दी के बल पर श्रीपति अपने प्रदेश का ही नहीं, भारतवर्ष का बहुत बड़ा नेता बन सकेगा।’
हर्षातिरेक से उमड़ते हुए अपने आंसुओं को पोंछते हुए श्रीपति ने कहा, ‘चाचाजी, आपने मेरे चरित्र पर जो लांछन लगाया है, वह सरासर अपने भ्रम के कारण! लेकिन मैं आपके आदेशों का पालन करूंगा।’
मैंने अब दसवां अनुच्छेद पढ़ा – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र अपने भतीजे लोकपति मिश्र का आदर करता हूं। विन्रम, शिष्ट, अध्यवसायी और पंडित। अपने अथक परिश्रम और अपनी योग्यता के बल पर ही वह संस्कृत महाविद्यालय का प्राचार्य बन सका है। मैं अपनी समस्त पुस्तकें उसे देता हूं, जिसकी जिल्दें बनवाकर वह मेरे मकान के नीचे वाले खंड में एक अच्छा-सा पुस्तकालय स्थापित कर दे। इसी मकान में वह आकर रहे भी और जसोदा भी देखभाल करे। जसोदा की मृत्यु के बाद इस मकान के नीचे के खंड का स्वामी लोकपति मिश्र होगा। अगर जसोदा लोकपति के साथ न रहना चाहे, तो वह अपने पुत्रों-पुत्रियों के साथ या कहीं दूसरी जगह रह सकती है। ऐसी हालत में जसोदा के जीवनकाल में ही इस नीचे के खंड पर लोकपति का स्वामित्व हो जाएगा। पुस्तकों की जिल्दें बंधवाने के लिए तथा रैक खरीदने के लिए मैं दो हजार रुपयों की व्यवस्था करता हूं।’
लोकपति ने भूमि पर अपना मस्तक नवाकर कहा, ‘चाचाजी का आदेश शिरोधार्य है। लेकिन जिल्द-बंधाई और रैकों के खरीदने के लिए यह रकम बहुत कम है।’
तभी मुझे लालमणि की आवाज सुनाई दी, ‘इसमें हजार-दो हजार और जो लगे, मुझसे ले लेना।’
ग्यारहा अनुच्छेद इस प्रकार था – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र अपने सेवक बुधई से बहुत संतुष्ट हूं, जो गत बीस वर्षों से मेरे अंत समय तक बड़ी लगन और बड़ी भक्ति के साथ मेरा सेवा करता रहा। भोजन यह मेरे यहां करता था, वस्त्र यह मेरे पहनता था, अपनी तनख्वाह यह पूरी-की-पूरी अपने घर भेज देता था। तो मैं आदेश देता हूं कि मेरे समस्त वस्त्र, सूती, रेशमी और ऊनी बुधई को दिए जाएं। भंडारघर में जितना भी अनाज, घी, चीनी है, वह सब भी बुधई को दे दिया जाए और मेरी ओर से सौ रुपए देकर इसे भी विदा कर दिया जाय। यदि मेरे कुटुंब का कोई व्यक्ति बुधई को अपने यहां नौकर रखना चाहे, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।’
जसोदा देवी ने कड़ककर बुधई से पूछा, ‘कितना सामान है भंडार में?’
बुधई ने हाथ जोड़कर कहा, ‘एक बोरा चावल, एक बोरा गेहूं, पांच किलो चीनी, एक मन गुड़, एक टीन घी और दो कनस्तर सत्तू है, दालें भी थोड़ी-थोड़ी हैं।
जसोदा देवी ने कहा, ‘तेरही के दिन जो भोज होगा, यह अनाज उसमें काम आएगा। बुधई को कैसे दिया जा सकता है?’
मुझे बोलना पड़ा, ‘भोज का प्रबंध लालमणि को करना पड़ेगा, जिन्हें इस सबके लिए पचास हजार की रकम मिली है। लालमणि अगर चाहें, तो यह अनाज बुधई से बाजार के भाव पर खरीद लें।’
लालमणि ने कहा, ‘यह सब बाद में देखा जाएगा। अब आप वसीयत का शेषांश पढ़िए।’
बारहवें अनुच्छेद की प्रतीक्षा में सभी लोग थे, जो इस प्रकार था – ‘मैं चूड़ामणि मिश्र अपने मकान के रूप में अचल संपत्ति तथा बैंक में जमा ग्यारह लाख रुपयों की चल संपत्ति का स्वामी हूं। यह ग्यारह लाख की रकम पिछले अप्रैल में मेरे नाम थी, ब्याज लगाकर यह रकम अब और बढ़ गई होगी। संभवत: इस राशि पर मृत्यु कर भी देना होगा। तो मृत्यु कर देने के बाद जो रुपया बचे, उसमें से इस वसीयत में निर्धारित राशियां बांट दी जाएं, और जो बचे, वह बराबर-बराबर भागों में लालमणि और नीलमणि में वितरित हो जाए।’
मैंने कुछ रुककर कहा, ‘वसीयत समाप्त हो गई है, केवल एक फुटनोट है मेरे लिए अलग से। अगर आप कहें, तो उसे भी पढ़ दूं।’
एक स्वर से सब लोगों ने कहा, ‘हां-हां, उसे भी पढ़ दीजिए।’
फुटनोट इस प्रकार था – ‘मेरे परम शिष्य जनार्दन जोशी! तुम्हारा उत्तरदायित्व केवल इस वसीयत को मेरे परिवार वालों को सुनाना होगा। इस वसीयत की रजिस्ट्री हो चुकी है जो अदालत में मौजूद है। तो जनार्दन, तुम इस वसीयत पर परिवार वालों के हस्ताक्षर लेकर अदालत में तत्काल जमा कर देना। जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम हमेशा भावानात्मक प्राणी रहे हो। तुम्हें भौतिक दर्शन पर विश्वास नहीं रहा है। न तुमने सॉरल पढ़ा, न चार्वाक का दर्शन पढ़ा है। एकमात्र वेदांत के तुम पंडित रहे हो। मुझे तुमसे कभी-कभी ईर्ष्या होने लगती है कि कितना संतोष है तुम्हें, तुम्हारे मन में कितनी शांति है। मैं निःसंकोच कहता हूं कि तुम मेरे सबसे अधिक निकटस्थ हो। मैं तुम्हें अंतिम उपहार के रूप में अपना परम प्रिय तोता गंगाराम भेंट करता हूं, जिसे मैंने अपने प्राणों की तरह पाला है। जब तुम अदालत से इस वसीयत को जमा करके लौटना, तब बुधई से गंगाराम को ले लेना।’
मैंने घड़ी देखी, दस बज चुके थे, मैं उठ खड़ा हुआ, ‘अदालत खुल गई होगी, मैं पूज्य गुरुदेव की आज्ञानुसार यह वसीयत वहां जमा करके वापस लौटता हूं।’
अदालत में अधिक समय नहीं लगा, बारह बजे ही मैं लौट आया। बुधई ने तोते का पिंजरा मुझे थमा दिया।
लंका से अस्सीघाट अधिक दूर नहीं है, जहां मेरा मकान है। पिंजरा हाथ में लेकर मैं पैदल ही चल पड़ा। उस समय मेरे मन में परम संतोष था। आचार्य इतने संपन्न और इतनी स्थिर बुद्धि के आदमी होंगे, मैंने पहले कभी कल्पना न की थी। मैं इस पर सोचता मगन भाव में चल रहा था कि मुझे सुनाई पड़ा, ‘तुम बुद्धू हो।’
मैं चौंक पड़ा। बिल्कुल साफ आवाज। और मैंने अनुभव किया कि यह आवाज तोते के पिंजरे से आई थी। इस आवाज को सुनकर मेरे विचारों ने पलटा खाया। आचार्य ने लाखों रुपए उन लोगो को बांट दिए, जिनसे वे बेहद नाराज थे, जिन्हें वे गालियां देते थे, लेकिन मेरे लिए उन्होंने एक पैसे की भी व्यवस्था न की। आज मुझे आचार्य चूड़ामणि पर कुछ झुंझलाहट होने लगी। इस झुंझलाहट के मूड में मैं तेजी से डग बढ़ाकर चलने लगा। तभी मुझे पिंजरे से सुनाई पड़ा, ‘मैं पंडित हूं!’
बड़ी साफ आवाज, जैसे आचार्य चूड़ामणि स्वयं बोल रहे हों। तो आचार्य एक मूल्यवान उपहार मुझे दे गए हैं। अस्सी घाट सामने दीख रहा था कि मुझे फिर सुनाई पड़ा, ‘तुम बुद्धू हो!’
आसपास के लोग मुझे और मेरे हाथ वाले पिंजरे को देख रहे थे और मुझे लगा कि आचार्य चूड़ामणि अपनी वसीयत में मुझे ठेंगा दिखाकर मेरा उपहास कर रहे हैं। मेरा अंदर वाला वेदांती न जाने कहां गायब हो गया। मैं तेजी से अपनी घर की ओर न मुड़कर गंगाजी की ओर चलने लगा, तभी पिंजरे से सुनाई पड़ा, ‘मैं पंडित हूं!’
सामने गंगाजी लहरा रही थीं। मैंने आचमन करते हुए कहा, ‘आचार्य, तुम पंडित थे इससे कोई इंकार नहीं कर सकता, तुम्हारी आत्मा को शांति मिले!’ और मैं अपने घर की ओर चलने को उद्यत ही हुआ कि गंगाराम बोल उठा, ‘तुम बुद्धू हो!’
जैसे सिर से पैर तक आग लग गई हो मेरे, मैंने पिंजरे की खिड़की खोलते हुए कहा, ‘मैं बुद्धू हूं, यह मानने से मैं इंकार करता हूं। हे गंगाराम, मैं तुम्हें मुक्त करता हूं!’ मेरे कहने के साथ ही गंगाराम पिंजरे से उड़ गया।
और मैं घाट पर खाली पिंजरा छोड़कर घर की ओर चल दिया।
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